भूतपूर्व जोधपुर रियासत का मुख्य नगर। रियासत को
मारवाड़ भी कहते थे। यहां के राजपूत राजा कन्नौज के राठोड़-नरेश जयचंद के वंशज है। मूलत: ये राष्ट्रकूटों की एक शाखा से
संबंधित थे जो कन्नौज में 946-959 ई. के बीच में, जाकर बस गई थी। 1194 ई. में जयचंद के मुहम्द गौरी द्वारा पराजित होने पर उसका
एक भतीजा सालाजी मारवाड़ चला आया और यहां आकर उसने हटबेदी में राजधानी बनाई (1212 ई.)।
1381 ई. में राजधानी मंडोर लाई गई और तत्पश्चात 1459 ई. में में जोधपुर। इसका कारण
यह था कि मेवाड़ के नाबालिग शासक के अभिभावक चौंडा ने मंडौर नरेश रनमल को युद्ध में
हरा दिया जिससे रनमल के पुत्र जोधा को मंडौर छोड़कर भागना पड़ा। यद्यपि उसने मंडोर पर 1459 ई. में पुन: अधिकार कर लिया किंतु सुरक्षा के विचार से एक वर्ष पहले
वह जोधपुर के गिरिदुर्ग में जाकर बस गया था और वहीं अगले वर्ष उसने जोधपुर नगर की नींव
डाली। इसका शासनकाल 1458 से 1488 ई. तक था। जोधपुर के राठौर राजा मालदेव ने 1543
ई. में शेरशाह सूरी से युद्ध किया और 1562 ई. में अकबर से। इसके पश्चात जोधपुर नरेश
मुगलों के सहायक और मित्र बन गए। औरंगजेब के समय में राजा जसवंतसिंह यहां के राजा थे।
वे पहले दारा के साथ रहे और उसकी पराजय के पश्चात औरंगजेब के सहायक बने किंतु मुगल
सम्राट का उन पर कभी पूर्ण विश्वास न रहा। उनका 1671 ई. में पेशावर के निकट जमरूद
में, जहां वे युद्ध पर गए थे देहांत हो गया। इसके पश्चात औरंगजेब
ने जोधपुर पर आक्रमण करके रियासत पर अधिकार कर लिया और जसवंतसिंह के अवयस्क पुत्रों
को कैद कर लिया। ऐसे आड़े समय में उनकी रानी को राज्य के सरदारों, वीर दुर्गादास और गोपीनाथ से बहुत सहायता मिली। ये, अवयस्क अजितसिंह को बड़े कौशल से मुगलों की कैद से छुड़ाकर मेवाड़ लाए। यहां
से इन्होंने 1701 ई. में मंडौर को पुन: हस्तगत कर लिया और 1707 ई. तक शेष रियासत
को भी अपने अधिकार में ले आए। अजित सिंह ने अपनी पुत्री इंद्रकुमारी का मुगल नरेश फ़रूखशियर
से विवाह किया था। राजस्थान के इतिहास में इस प्रकार के दूषित विवाह का यह अंतिम उदाहरण
कहा जाता है।
जोधपुर
नगर लगभग छ: मील के घेरे में बसा हुआ है। बीच-बीच में पहाडि़यां भी हैं। पश्चिम की
ओर एक पहाड़ी पर जोधाजी का बनवाया हुआ किला है। उसी के नीचे से बस्ती आरंभ होती है।
किले की नींव ज्येष्ठ शुक्ल 11, वि. स. 1516 (1459 ई.) को रखी गई थी। जिला 600
फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है और इसका विस्तार लगभग 500 गजX250
गज हैं। इसके जयपोल और फ़तहपोल नामक दो प्रवेशद्वार हैं। परकोटे की ऊंचाई 20 फुट से
120 फुट तक और मोटाई 12 फुट से 70 फुट तक है। दुर्ग के भीतर सिलहखाना (शस्त्रागार)
मोतीमहल और जवाहर खाना आदि भवन अवस्थित है। सिलहखाने में सैकड़ों प्रकार के शस्त्रास्त्र
हैं। उन पर सोने-चांदी की अच्छी कारीगरी है। ये इतने भारी है कि साधारण मनुष्य इन्हें
उठा भी नहीं सकता। मोतीमहल के प्रकोष्ठों की भित्तियों तथा छतों पर सोने की अनुपम
कारीगरी प्रदर्शित है।
किले के उत्तर की ओर ऊंची पहाड़ी पर थड़ा नामक एक भवन है जो
संगमरमर का बना है। जोधपुर नरेश जसवंतसिंह और अन्य कई राजाओं के सामाधिस्थल यहीं
बने हैा। थड़ा ऊंचे और चौड़े चबूतरे पर स्थित है। इसके पार्श्व में एक प्राचीन सरोवर
भी है। किले के पश्चिमी छोर पर राठौड़ों की कुलदेवी चौमुंडा का मंदिर है।
Nice guru ji
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